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रविवार, 22 सितंबर 2013

       


             
               ***  …कि जब एहसास ऊँघने लगे  ***


आज जब वक़्त की
दूधिया चाँदनी से
तुम्हें देखा है
सराबोर नहाते हुए
जान पायी तभी मैं
उजाले के उस मर्म को
जिसे अरसे पहले तुमने
मेरी ही झोली में डालकर
दाग़दार किया था
और यह निरीह मन
उस गर्मजोशी में गुम था
कि तुम रहो, न रहो
तुम्हारे 'होने' का विस्तार
मेरी मौजूदगी के  लिए
कायम किया करेगा
स्वयं अपनी पराकाष्ठा।

तुम्हारे मनोभाव का
हर बेहिसाब मेलजोल
जिसे तुमने
हमारी ही वर्जनाओं से
कभी बंधेज किया था
और रोक रखा था
उस उफ़नती नदी को
किसी ने कभी जिसको
रास्ता नहीं सुझाया
ले डूबी थी बहते- बहते फिर
उन उम्मीदों के जहाँ को
जिसका असीम सम्भाव्य
तुम्हारे ही बाड़ों में
दम  घुटने से
अपनी जिजीविषा को
तब अनायास ही धिक्कारने लगा.

पिघलना तो मेरा मुक़द्दर था
कि मैं मोम की थी
पर जम जाने का
मेरे आँसुओं के संग
जो एक सिलसिला पनपा
उसे मैंने,
तुम्हारी ही मौजूदगी में
तुम्हारी लौ के होने से
हँस- हँसकर पाया था
और जो ठोस बन गये
उन अश्कों को ख़ुद से
जुदा करके ही
मैं ये भरम समझ पायी
कि जो जलकर भी न मिटे
वही अब कहीं से
विक्षिप्त - से सही
मेरा आधार बनने वाले थे.


हमारे प्रेमाध्याय का हर पृष्ठ
अपने छद्मांकन से
अब आज शर्मिंदा है
और हैरानगी के इस
उफ़नते हुए समन्दर में 
बीते हुए उन एहसासों का
साक्ष्य भी चाहता है, कि
कैसे बिखरे हुए
सारे भावों को समेटकर
कभी तुमने उनको
एकाकार किया था,
जिनका हर पहलू
अपनी मूर्त्तता का
बेहिचक कर्ज़दार बन जाता है!

देखो न अब आसपास,
कितने ही रंग बिखरे पड़े हैं
और है बदरंग-सी
वो सुर्ख चादर भी
कि जिसकी हर कोर पर
मेरे कसमसाने का
तब भाव अंकित था
हर टुकड़ा पर वहाँ
मेरे तार- तार वजूद का
आज पर्याय बना हुआ है
और जिसकी सन्धि
स्वयं वो गद्यांश है
जिसके बग़ैर ही
इस कहानी का
अन्त दृष्टिगोचर होता है.

अब थक- हारकर जब सोने आयी,
तो नींद नहीं है आँखों में
और डर-सी जाती हूँ
तेरी नाराज़गी से
कि क्यूँ कर जगाया तुझको
उन उनींदी पलकों से
जिनके स्वप्न- लोक में
मैं तेरी आग़ोश में थी
और जहाँ तुम्हारा बंधन
मेरे तिरस्कार को भी
अपनी सीमाओं से
निरर्थक बनाने को
जाने कब से
होड़ लगाए बैठा था! ***

       --- अमिय प्रसून मल्लिक



 


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