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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013




                                        *** अव्यक्त ***


उसने कहा,
कुछ छोटा लिखो,
लिखो कि तुमने
एहसासों को बँधेज करना,
मानो अभी- अभी सीखा है
और लिखो,
तुमने लिखना इसलिए चुना है
कि तुम लिखने के लिए
कभी लिखते नहीं,
और जो लिखते हो
वो काव्य- सा,
तुम्हारे ही अंदर धधकता रहा है
सदियों से दीर्घकाय बनकर.

हाँ, लिखने से पहले
तब जो भाव आते रहे थे
उनकी ख़ामोशी से छनकर
वो अब अनायास ही
अपनी रुसवाइयों का
मूक दर्शक बन बैठे हैं
कि लिखना इनपर
तब ज़्यादा सार्थक था
शब्द- सामंजस्य से ये
अपनी ठोस ज़मीन तलाशने में
जब हर शय में
मशगूल रहे थे.

अब जबकि लिखने लगा हूँ
अपनी लेखनी की
सकुचाई भावनाओं को समेटकर
तो स्वयं ही सिमटने लगे हैं
तुम्हारे ही संग के वे भाव
जो कभी विस्तृत होकर भी
अपनी ही नज़रों में
उत्तरित रहे थे.

अब आलम यह है
उनकी गुज़ारिशों की बदौलत
कि एहसासों से लबरेज़ होकर भी
स्वयं बन गये हैं ये
एक अनपेक्षित प्रश्न.
तो कहो न,
फिर इसे आज मैं
नाम दे दूँ,
मेरे ही छुपाए हुए
विस्मयादिबोधक चिह्ण का! ***
             
                --- अमिय प्रसून मल्लिक.

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