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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013



                      *** वक़्त के फेरे हैं ***


निकला था जब मैं
तेरे साथ सफ़र में
अबूझ किलकारियाँ तेरी
मेरे संग उत्साहित थीं
और वक़्त की ही
धुँधली तस्वीरों से छाँटकर
जो तुमने मुझे
अपनी ख़ुशी सौंपी थी
उसी को उन्माद की चरम से
कुचल- कुचलकर हमने
अपनी बेबस अंगड़ाइयों का
तब नाम दिया था.

तुम्हें याद ही होगा
जिन मायूसियों की हम
बरात में झूमे थे
वही तब हमारे
छटपटाते मनोभावों का
आधार बनी थीं
और तुम्हारे ही इनकार को
झुठलाकार मैं,
तुम्हें गर्मजोशी से
थपथपाया किया था.

ढलती ही गयी
हमारे एहसासों की उम्र भी
और कुछ ना पाने का
जो एक ज़िंदा अवसाद पनपा
उसमें आँसू और बेबसी का
हमने ही मिलाप करवाया था,
और जो गहरे ज़ख़्म बने
उनको अपनी अंजुरि में भरकर
वक़्त को दबाने की
तब अथक कोशिशें हुई थीं.

आज तुम हो, मैं हूँ
और हमारे जीवन- चित्र के
बहुतेरे ही दृश्य साथ हैं,
जिनकी मौजूदगी का मर्म
अपने- आप में
वो पूर्ण कहानी है
जहाँ,
हम सब ही लाचार रहे हैं.

अब आज पत्ता- पत्ता साफ़ है,
और हर शय में पानी- सी चमक है
अब समझने लगा हूँ;
हाँ, हाथ से फिसलते
वक़्त की कहूँ तो
ऐसे ही दौर का
मैं स्वयं घड़ीसाज़ रहा हूँ. ***


           
               --- अमिय प्रसून मल्लिक

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