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रविवार, 27 अक्तूबर 2013

*** झाँकती ज़िन्दगी ***

बड़ी हैरत होती है मुझे
तेरी ऊँचाइयों को भाँपकर,
और डर- सा जाता है
मेरे अंतर्मन का रोम- रोम
जब घूँघट से झाँककर,
सुनती हूँ मैं
तेरी बुलंदियों की
बेपरवाह- सी कहानी.

अपने भरम को हटाकर
जो सफ़ेद तुमने
मखमली चादर बिछायी थी
कि जिसकी हर कोर पर
तुम्हारे अवसादों का
आज अबूझ मातम पसरा है,
उसे धो डालने के
यहाँ अब भी
असंख्य कारण हैं,
पर तुमने जो अपना
ख़ुद से ही सीमांत उकेरा है
उसे अपनी बुज़दिली से
हमने अब आत्मसात किया है.

तेरी शूलों की सत्ता
पूरे आकाश में उजागर है,
और जो दबा- कुचला- सा
भावनाओं का समन्दर
तेरे अपनों ने गढ़ा है,
उसकी अथाह गहराई में
तेरा होकर भी न होने का
हर भाव आज बेसुध है.

इस शय की हर कहानी
पर सबसे इतर ही थी,
कह तो रही हूँ,
हाँ, बौनी- सी रही थी
मैं संसार की चौखट पे
पर देखो न,
आज दीर्घकाय हो गयी हूँ,
तुम्हारी मलीन- सी सैकड़ों
भावनाओं का भोजन करके. ***

       --- अमिय प्रसून मल्लिक