*** हाँ, कुछ भी लिखता रहूँगा... ***
दो अहम बातें हैं.
तुमने कहा,
लिखा करो ऐसे ही,
तो मैं लिखने लगा हूँ,
पत्तों की उन्मुक्त सरसराहट को भी
कि जिनकी कम्पन कभी
बस, नैसर्गिक प्रतिक्रिया थी
पर आज लिखने मे शरीक हूँ
तो इनकी बेचैनी
मेरे वो संभाव्य हैं
कि जिसके लिखे जाने से
अपने- आप में तुम बनते हो.
तुम्हारे साथ होने से जब
मुझे असीमित कारण मिलते थे,
जाने क्यूँ भटकता रहा
तब भी ख़यालों की खोज में
पर तुम्हारे पास सिमटने का
जो तुमने सीमान्त खींचा था
उसको लाँघने का तिरस्कृत भाव
अब आज अपने- आप में
मन- मलीन होकर
मूक दर्शक बन बैठा है.
आज वही सब लिखने की
इतनी होड़ मची है
कि सब लिख डालने के
यहाँ भाव पनप रहे हैं
जो कभी गहराते- गहराते भरसक
तेरे अन्दर की ही आह बनेंगे,
फिर रंज और स्वाध्याय का
जो एक बीज फूटेगा
मेरे असंख्य अनुत्तरित प्रश्नों का
तुम्हारी नज़रों में
वही अपठित गद्यान्श होगा.
अब चूँकि आज लिखना ही है
तो ये एहसास ही
बड़ा ही दुष्कर हो चला है,
और कुछ तो मेरे ख़ुद के
विचारों के भँवर मे उलझा,
कुछ तुम्हारे ही दिए,
शब्द- बाहुल्य की बदौलत
वो भी लिख पा रहा हूँ
जो तेरे शब्दाघात से
सदियों से मेरे ही अन्दर
टूटते- बूझते रहे थे;
और कुछ लिख पाने के ख़याल से ही
विचार- शून्य- होकर भी
तुम्हारी ही ओर
फिर टकटकी लगाए बैठ गया हूँ.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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