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शनिवार, 21 दिसंबर 2013

*** बेटा ! ***



आज यह मेरी सातवीं चिट्ठी है,
मन में एक डर- सा है
कि तुम जवाब दोगे
या फिर अंजान बनकर
कर दोगे फ़ोन-
''आपलोगों ने
ख़त देना तो बंद ही कर दिया.''

कहने को तो,
हर महीने में एक बार
तुम कर लेते हो फ़ोन
पर छुपा जाते हो
मेरी चिट्ठी की बात,
यह कुछ गले नहीं उतरती.

बीवी भी खोजी तुमने परी- सी
खोए रहते हो उसी में,
या जाने किस वजह से
भूल गये हो अपने कर्तव्य
जो दीन- हीन बाप को
इस बेला में देते हो कष्ट!

घर की ख़बर लेना भी
तेरे लिए वक़्त ज़ाया करना ही है
सो, तीन महीनों से
एक रुपया भी भेज न सके;
कहने को रखते हो
कंपनी में अच्छी हैसियत.

ख़ैर, जो करो
तुम्हारी ज़िन्दगी है
अब तुम्हें क्या समझाऊँ,
मैं तो पुरुष हूँ
माँग लूँगा सड़क किनारे भीख भी,
पर इक ज़रा- सा करना
अपनी बूढ़ी माँ का ख़याल.

इस बार ख़त की बात से
मुँह मत मोड़ना,
और भेज देना कुछ रुपये
खरीद दूँगा उनसे
तेरी माँ को कुछ गर्म कपड़े
मौसम विभाग ने जो लगाया है अनुमान
ख़ूब पड़ेगी ठंड इस बार
क्यूँकि नहीं झेल पाएगी
उसकी जर्ज़र देह
अब एक भी सिहरन.

घर तो जैसे- तैसे
चल ही रहा है,
वैसे भी मैं काठ हूँ
सह लूँगा सब कुछ
मगर फिर कहता हूँ
अपनी माँ को कष्ट मत देना
उसका क्या दोष,
वो तो आज भी तुम्हें
समझती है श्रवण कुमार !***

       --- अमिय प्रसून मल्लिक.

1 टिप्पणी:

Preeti 'Agyaat' ने कहा…

beautiful creation...very emotional. Never stop writing !