कहाँ से कहाँ मैं
आ गया हूँ आज
मेरे भीतर की हर तस्वीर
ले रही है अब
अपना एक नया रूप.
मेरी बीसों उँगलियाँ
करना चाह रही हैं सृजन
इनकी थरथराहट, इनकी कॅंपकंपाहट,
मेरी अनुभूति की तीव्रता;
सब मिलकर मेरे ही साथ
आज मचल रही हैं कितना,
उद्देश्य इनके उद्गम का
मेरी उथल- पुथल को शांत करना
हो न हो, पर
शब्द ने जो शुरू कर दिया है
आज से अपने मायने खोना;
उग्र हैं अब,
क्यूँ कि मेरे काव्य- प्रेम का
तुम्हीं हो रचनात्मक आंदोलन !
अपने अन्दर की ऊहापोह को
क्यूँ दबा देतीं
मेरी सृजक उँगलियाँ !
ये न लेती कोई सहारा
तेरा भी ओ ज्वलंत भरम,
पर साथ सहारे का हमेशा मिला है
नहीं था कोई सृजन तब भी!
और बिछने लगे शब्द जब
तारों की भाँति
मेरे ही आत्म- फलक में
तब भी मैने अंजाने पाया
तुम्हारा ही मज़बूत आधार,
निखरने लगे मेरे सार्थक शब्द फिर
हर पल असंख्य अर्थ लेकर.
तुम फिर क्यूँ न मानो
कि तेरे 'साथ' ने दिया मुझको
आत्म- अभिव्यक्ति की शक्ति को,
मेरे व्यक्तित्व की स्थिरता को
जिनसे भाग- भागकर मैं अब तक
किया करता रहा अठखेलियाँ
पर समझने लगा हूँ अब कुछ- कुछ मैं
घिर जाऊँगा इक दिन
तुम्हारे सार्थक शब्दों के ही जाल में!
सो, मुखर हो जाएँ तेरी भी आवाज़ें
ऐसा भी मैं चाहूँगा
और न दबाओ तुम
कभी भी, कहीं भी
अपने होने की सार्थकता.
किसी भ्रमजाल से ही फिर
माँगेंगे मेरे निरीह नयन
दे दो अपने शब्द- बाहुल्य से
मुझको तुम कुछ शब्द निरर्थक
कर सके जो लुप्त धीरे- धीरे
मेरे ही तुच्छ अस्तित्व को
और सारी दुनिया को सिर्फ़
दिखे तुम्हारी सार्थकता की सच्चाई!
...दे दो मुझे कुछ शब्द निरर्थक!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
2 टिप्पणियां:
sundar prastuti
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