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सोमवार, 30 दिसंबर 2013
*** आप जब भी... ***
अपनी मुहब्बत सलामत रहे, दुआ कीजिए!
आप जब भी मुझसे तनहा मिला कीजिए!!
मैं ख़यालों का पंछी तेरे संग उड़ना चाहता हूँ
इस बेनाम राह के मोड़ से जुड़ना चाहता हूँ.
तुझे महसूस करता हूँ अपनी पलकों के पीछे
जगता हूँ जब- जब नीन्दों से आँखें मीचे- मीचे.
अकेलेपन की पगडण्डी से जब कभी बुलाओगी,
सच कहता हूँ, तब भी मुझे अकेला ही पाओगी.
तेरी पुकार पर भी 'गर दिखाऊँ कोई देरी या दूरी
बेशक यादों- यादों में मुझसे फिर गिला कीजिए.
अपनी मुहब्बत सलामत रहे, दुआ कीजिए!
आप जब भी मुझसे तनहा मिला कीजिए!!
मैं तेरे मन के आँगन में अठखेलियां करने लगा हूँ
पाकर तेरी इक झलक रात- दिन आहें भरने लगा हूँ.
रहती हो हर पल मेरे लिए अब तो हर शय में मौजूद
मिलो, न मिलो, जाने कहाँ जाओगी इसके बावजूद;
मुझसे दूर तुम, फिर भी जहाँ कहीं जाओगी,
सच कहता हूँ, शायद ही कभी मुझे भुला पाओगी
करना याद तन्हाइयों में, ये गुज़ारिश है मेरी
चाहत का मेरी बस इतना- सा तो सिला दीजिए.
अपनी मुहब्बत सलामत रहे, दुआ कीजिए
आप जब भी मुझसे तनहा मिला कीजिए.***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
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