मेरे आँसू की शिद्दत से जो पिघल गए, मेरे परिजन नहीं,
आत्म- मुखरता पर जिसने बंदिश लगायी, मेरा गुंजन नहीं !
देखो ग़ौर से आत्मा मेरी, इसमें छुपा है सिर्फ दर्द इसका,
लगाया जिसने मरहम ज़ख्म पे, वो न रहा हमदर्द इसका.
अरसे बेख़ुदी से हमने जिसे अब तक सीने में था पाला
सारे ज़ख्मों को भी अब तक बस उसी ने है सम्भाला!
इक सिहरन- सी दौड़ जाए पूरे ज़ेहन में जिसके ख़याल से,
कोई क्यूँ न रखे उम्मीद फिर भी एहसानों के ही जाल से!
ये कैसी राह है पर, दूर- दूर तक कोई साथी दिखता नहीं,
ख़ुशियों के खरीदार हैं असंख्य, दर्द जहाँ बिकता नहीं!
तेरे अंतरतम की आवाज़ें हैं, मेरा आत्म-अभिव्यंजन नहीं,
आत्म- मुखरता पर जिसने बंदिश लगायी, मेरा गुंजन नहीं!
सिसकता है, रोता है मन मेरा; प्रेम का ये रूप देखकर,
डर भी जाता है उस पल, जाने क्यूँ तेरा समरूप देखकर!
प्रेम की विडम्बना ही भरसक तेरी प्रवृति का अन्दाज़ है,
तेरे सामने इसलिए मेरा हर बयान होता मूक- आवाज़ है!
मेरी रचनात्मकता की फिर भी, तुम ही अमिट स्याही हो,
कोरे कागज़ मेरे अपने हैं, बस एक तुम ही हुई परायी हो.
ग़ैर ही सही, स्याही के रंग तो आँसू बनकर रोते रहेंगे,
शब्द जो बिछते आत्म-पृष्ठ पर, अपने अर्थ खोते रहेंगे!
जिसने तुम्हें मगर इक बार न झकझोरा, मेरा सृजन नहीं,
आत्म- मुखरता पर जिसने बंदिश लगायी, मेरा गुंजन नहीं!!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक
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