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बुधवार, 29 जनवरी 2014

*** सिमटा हूँ हाशिए पे ***





इस अकड़ी हुई चौखट पे
कांपती हुई, नरमी के साथ
तेरी हताश- सी आवाज़,
और तेरी ही बेदम- सी
हथेलियों की अमिट छाप
सिसक कर घुमड़ रही है
भरसक बदहवास आज भी.

तेरा कहीं न 'होने' से
इस आँगन ने अवसाद जना था,
और तेरी ही आग़ोश में
जो तेरा जीवन्त रोष रोया;
उसका कभी न मिटनेवाला
एक बेदर्द- सा सिसकता
ज़ख्म यहाँ ज़िन्दा है आज भी.

उस ख़ामोश मुहब्बत का
जब मैं अनछुआ पहलू बना
तेरे ज़मीर की मिट्टी ज्यों
मेरे ज़ेहन का वजूद रही थी,
तूने तो शुरुआत में
रेशम- से कुछ ख्वाब दिये
और हर विराम में हमने
हॅंसकर ही मंज़ूर किया,
भावों के अथक सफ़र संग
चिलचिलाती धूप को आज भी.

जिन एहसासों से कल तक मेरे
काव्य में सौ अर्थ घुमड़ते रहे,
और जहाँ शब्दाडम्बर से हमने 
तेरे अन्दर काव्य का
कभी बीज बोया था,
वो 'तुम' तो आज कहीं नहीं
मेरे प्रेम की अभेद्य परिधि में;
र है यहाँ मेरा शब्द- सामर्थ्य बेसुध
हाशिए पे सिसककर दम तोड़ता
तेरे ही पन्नों पे आज भी. ***
   
     --- अमिय प्रसून मल्लिक.