…और मैं तुम्हें
बस की पिछली सीट पर बैठकर
बस की पिछली सीट पर बैठकर
तब निर्बाध
देखता ही रहा.
उन ख़यालों में गुम
होकर
जहाँ तेरे गेसुओं की
भीनी ख़ुश्बू कभी
पूरे माहौल में मौजूद
थी
और जिया ख़ुद मैं ही अकेला
उस पल को
भी इक टीस
के साथ,
जब कभी लौटते
वक़्त
तुम मेरी बगल
वाली सीट पर
मुझसे घंटों गुफ़्त-गू
के
अनाप- शनाप बहाने
ढूँढती रही थी.
मैं तुम्हारे कितने ही
निरुद्देश्य
सवालों का
जतन से सामना
करता रहा,
ये महसूस कर लेने
के बाद
कि तुम कई
दिनों से जब
मेरे संग की
ख़्वाहिश में
कई अनजान तिकड़मों से
कोई बिला वजह-
सा रिश्ता
बस यूँ ही
जोड़ रखा है.
ये उन मौजूँ
हवाओं का
रहा था असर,
या कि एहसासों
के भँवर में
झूमते रहने का
तुमने चंद घंटों
का ही रोज़
कोई आशियाँ चुना था;
जो तेरे नेह
के पुल से
होकर
हमारा सफ़र लहरों
के साथ ही
चलता रहा इक
उम्र तक
और मैं तेरी
ही आबो- हवा
में,
बड़ा ही बे-आबरू होकर
अपनी ख़्वाहिशों का हर
रोज़
पुरजोर दोहन करता
रहा.
आज ज़िन्दगी के कुछ
छिटके हुए हिस्सों
में ही
तेरी धुँधली यादों के
कई
डूबते हुए पुलों
पर
कुछ अनकहे- से टुकड़े
हैं
और सोए पड़े
अरमानों के संग
एक मर्म तड़पकर
उभरा है
कि तीस सीटों
की इस छोटी-
सी बस में
तुम्हारी ही अघोषित
टिकटों से
और तेरे पहलू में
मानो,
ये पूरी ज़िन्दगी
ज़ब्त हो गयी
है. ***
--- अमिय प्रसून
मल्लिक.
4 टिप्पणियां:
पढ़कर मन बेहद भावुक हो उठा. बहुत ही शानदार और यादगार लिख गये हैं, आप ! हर बार की तरह ही भाषा, भाव, शब्द-शैली अति-उत्तम ! अतुकान्त काव्य में आपका जवाब नहीं !
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ....मिलन बिछोह जिन्दगी के दो रंग तो हैं ही ......
जैसे यादें हमेशा साथ रहती हैं ...काश वैसे ही अपने भी हमेशा साथ रहते
शुक्रिया 'अज्ञात' जी, मधु जी और अंजू जी! आप सबने अपना कीमती समय यहाँ दिया, दिल से आभार! :)
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