ऐसा होता क्यों है,
कि जब ख़ुद बड़े बेचैन होते हैं,
सारे पहचाने चेहरों से दूर,
हम बेफ़िक्र निकल जाते हैं
जहाँ न कोई अपना होता है
और न कोई होती है फ़िक्र
होता है जहाँ,
सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना हेतु
और हम बड़े मौज में
अपनी जड़ों से हम दूर निकल जाते हैं!
सहसा कोई आकुलता
क्यूँ खींच लेती है उधर
चले थे हम जहाँ से मूंदकर आँखें!
फ़िर इक व्यग्रता का चेहरा,
और उम्मीदों का घर
क्यूँ करते है मिलकर गुज़ारिश
और हम बेबाक,
हो जाते हैं अप्रत्याशित रूप से आकुल
कि कोई अपना बड़ा हो रहा होगा बेचैन...
फ़िर होता है बातों का आदान- प्रदान
और अचानक ही
टूट जाते हैं सारे मिथक इक साथ,
कहीं कोई उम्मीद मगर होती नहीं है
कि जिसे लेकर हमने
सफ़र को कूच किया था;
...ऐसा क्यों होता है!
हम हो जाते है फ़िर मशगूल
कि शायद ऐसा ही होता हो,
जब भरम और प्रतिकूलता
आ जाते हैं चरम पे
ऐसे- ऐसे ही नज़ारे
हर ओर दिखते हैं;
क्या हमारी नज़रों का
यही इक धोखा होता है!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
(Pic courtesy- http://fineartamerica.com/featured/a-trick-of-the-light--love-is-illusion-marco-busoni.html with Thanks!)
9 टिप्पणियां:
बहुत ही गूढ़ भाव रचे आपने...उत्तम रचना..
कल 05/सितंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
एक निवेदन-
कृपया अपने ब्लॉग पर follow option जोड़ लें इससे आपके पाठक भी बढ़ेंगे और उन्हें आपकी नयी पोस्ट तक आने मे सुविधा रहेगी।
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सादर
बहुत सुंदर ॥
भ्रम में ज्यादा दिन इंसान खुश नहीं रह सकता है .जब टूटता है तो उसकी कसक मन को हरपल झकझोरती हैं
बहुत बढ़िया
very beautiful
बहुत बढ़िया
bahut sunder rachna ...umda bhaw..
sabka shukriya!
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