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रविवार, 4 नवंबर 2018

*** कितनी दूर हूँ...!***


जो समझते हैं
तुम्हारे क़रीब दिखना
मेरी मुहब्बत की निशानी रही है...

मेरे साथ चलते हुए
तुमने
प्यार की जब अमिट निशानियाँ छोड़ीं,
मैं बेपरवाह
तुम्हें जीत लेने की
आज इस नए शहर में भी अकेली ही मुनादी करती रही।
तुम आये तो,
ख़ुश्बू हवाओं में
और भी मदहोश हो रही थीं,
और उन्हें समेट लेने में
मैं खिलखिलाती हुई मानो पागल हुए जा रही थी।

मुझे
पहली दफ़ा छूकर
तुमने प्यार के सैकड़ों अबूझ मायने सिखाए,
और बताया कि
हो सकते हैं कभी भी, कहीं भी हज़ारों रास्ते
मुहब्बत से गुज़रते हुए, मुहब्बत को जताने के,
फिर मैं नज़रें झुकाए, घबरायी- सी तुमसे दूर जाना चाहती रही।

और,
इक अरसे के लिए
तुमसे इतनी दूर आकर भी तो
देखो,
तुम्हारे कितने क़रीब रही हूँ मैं! ***
           - © अमिय प्रसून मल्लिक.

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-10-2018) को "इस धरा को रौशनी से जगमगायें" (चर्चा अंक-3147) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

दिगम्बर नासवा ने कहा…

प्रेम के माया जाल से निकलना आसान कहाँ होता है ...
गहरी अभिव्यक्ति ...

मन की वीणा ने कहा…

वाह, उम्दा।