तुम्हारी उनींदी आँखों से
मैंने मुमूर्ष सपनों को
फिर सँवरते देखा है,
और देखा है,
अपने ही अंदर,
अंतर्द्वंद्वों संग
उन्हें लिपटकर ख़ामोश होते हुए.
तुम अँगराइयों- सी
पूरी रात में मेरी,
कभी कुछ यों शरीक हुई;
और तेरे मदहोश ख़याल
मेरे वजूद पर
चस्प रहे कुछ इस तरह
कि मैं स्याह रात का
अपनी रूह में
हर रात
इकलौता गवाह बना रहा.
अपनी भटकती रातों का भी
तुम्हारे प्रेम- बाज़ार में
एक खुली
मैं अब नीलामी चाहता हूँ,
यों कि तुम्हारे एहसासों का
हर ख़ाका अब आज
यहाँ जो बिकाऊ है.
चाहिए होगा
तुम्हें भी,
भुलावे में किये
अपनी मदमाती मुहब्बत की
कुछ तो बेशर्त क़ीमत.
जो सको ले जाओ,
सबों- सी तुम अपना हक़,
कि चाहिए हर किसी को
कुछ न कुछ
इस निष्ठुर प्रेमोन्माद में,
यहाँ कुछ भी देता कौन है...!***
--- अमिय प्रसून मल्लिक.
1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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